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पूजा वगैरह सब बेमतलब की बातें है!

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हमारे त्यौहार, परंपराएं , चलन...आदि पता नहीं कब, किसने और कैसे बनाएं होंगे... लेकिन जो बने हैं... बड़े ही बेहतरीन बने है। बहुत से लोगों को ये बेमतलब की चीज ही लगगी, जब तक वो इसको करीब से देखकर समझेंगे नहीं। ये कुछ सामाजिक शब्द है, "समरसता", "भाईचारा", "सद्भाव","उल्लास", "एकता" आदि इनके अर्थ यदि ढूंढने है तो शब्दकोश नहीं, मेरे गांवों में आना किसी उत्सव के समय... रुकना और देखना करीब से और तब भी समझ न आएं तो पूछ लेना कि क्या महत्व है इन त्योहारों का, इसमें होने वाली विभिन्न रस्मों और परम्पराओं का। मूर्ति पूजा का महत्व - मेरे गांव में साल में ३ बार मूर्ति स्थापित कर पूजा अर्चना की जाती है।  भादो मास कृष्ण अष्टमी को कन्हैया जी, इसमें पूरा परिवार अपनी व्यस्त जीवन से समय निकाल कर एक पूर्ण उल्लास के साथ एक होकर न सिर्फ प्रभु का जन्मोत्सव मनाते है बल्कि जीवन की सब परेशानियों को भूल खूब मज़े करते है रात में चौसर खेल कर(कोई कुछ भी कहें; चौसर परिवार को तोड़ता नहीं, जोड़ता है।) अंत में मूर्ति विसर्जन के पश्चात सभी आपस में भुजली(गेंहू का कोमल हरा तना