Posts

Showing posts from 2021

पूजा वगैरह सब बेमतलब की बातें है!

Image
हमारे त्यौहार, परंपराएं , चलन...आदि पता नहीं कब, किसने और कैसे बनाएं होंगे... लेकिन जो बने हैं... बड़े ही बेहतरीन बने है। बहुत से लोगों को ये बेमतलब की चीज ही लगगी, जब तक वो इसको करीब से देखकर समझेंगे नहीं। ये कुछ सामाजिक शब्द है, "समरसता", "भाईचारा", "सद्भाव","उल्लास", "एकता" आदि इनके अर्थ यदि ढूंढने है तो शब्दकोश नहीं, मेरे गांवों में आना किसी उत्सव के समय... रुकना और देखना करीब से और तब भी समझ न आएं तो पूछ लेना कि क्या महत्व है इन त्योहारों का, इसमें होने वाली विभिन्न रस्मों और परम्पराओं का। मूर्ति पूजा का महत्व - मेरे गांव में साल में ३ बार मूर्ति स्थापित कर पूजा अर्चना की जाती है।  भादो मास कृष्ण अष्टमी को कन्हैया जी, इसमें पूरा परिवार अपनी व्यस्त जीवन से समय निकाल कर एक पूर्ण उल्लास के साथ एक होकर न सिर्फ प्रभु का जन्मोत्सव मनाते है बल्कि जीवन की सब परेशानियों को भूल खूब मज़े करते है रात में चौसर खेल कर(कोई कुछ भी कहें; चौसर परिवार को तोड़ता नहीं, जोड़ता है।) अंत में मूर्ति विसर्जन के पश्चात सभी आपस में भुजली(गेंहू का कोमल हरा तना

चमचों से सावधान

अगर जिंदगी में थोड़े भी सफल हुए हो ना, तो बस अपने चमचों से दूर रहना; क्योंकि चमचे लोग तुम्हें महानता का एहसास जरूर करा सकते, लेकिन महान नहीं बना सकते... उसके लिए तो तुम्हारा आचरण और मेहनत ही काम आएगा। चमचे तुम्हें अहंकारी बना देते है और तुम्हारी तरक्की में सबसे बड़ी बाधा होते है। और हां तुम वो चमन चुतिये होते हो जो मन ही मन खुद की तारीफ से खुश तो होते हो लेकिन असलियत में तुम्हारे पीछे हजार आलोचना होती है तुम्हारी नासमझियों की जो तुम्हें पता तक नहीं चलती। कहते है की भारत के सिस्टम में अफसरशाही और लालफिताशाही हावी है, जो देश की तरक्की में बाधक है... हां सच कहते है,.. लेकिन इस अफसरशाही के पीछे की असली जड़ चमचागिरी हैं... और ये चमचागिरी अभी से नहीं है अंग्रेजो के समय से है... उनकी चमचागिरी करने वाले ही उत्तराधिकारी हुए और धीरे धीरे ये चमचागिरी हर सिस्टम में बैठे व्यक्ति के व्यवहार में आ गई... आज हर कोई पहले खुद अपने ऊपर वाले की चमचागिरी करता है.. और फिर ऐसी ही चमचागिरी की उम्मीद वो अपने नीचे वालों से रखता है... और निसंदेह लोग लगे भी हुए है... क्योंकि आज चमचागिरी एक प्रोटोकॉल बन गया है... औ

जीवन है चलने का नाम

मेरी हमेशा से आदत रही है कि मैं अपने तरफ से कभी कोई ग्रुप नहीं बनाता... जो बना बनाया ग्रुप मिल गया.. बस वही है.. और उसके सारे सदस्य अपने ग्रुप में है। जैसे स्कूल में या कॉलेज में मेरी क्लास में जितने भी साथ में रहे हो वो सब मेरा ग्रुप है... वैसे ज्यादातर लोग दूसरों से, ये तेरा ग्रुप ये हमारा ग्रुप, कहकर दूरी बना लेते थे.. लेकिन शायद मैं ही ऐसा एकमात्र बंदा रहा हूं जो या तो किसी ग्रुप में नहीं था या ऐसा भी कह सकते कि हर ग्रुप का एक सदस्य मैं हमेशा रहा। लेकिन कॉलेज के बाद 2 साल तो मैं लगभग नहीं के बराबर लोगों से मिला.... मेरी बात भी दिन में 4-5 लोगों से ज्यादा किसी से नहीं होती थी...।  लेकिन अब जबसे थोड़ा रेगुलर रेलवे में काम शुरू किया है, तबसे रोज-रोज नए लोगों से मिलना, नई बातें सीखना, अपने कार्यक्षेत्र के व हर तरह के लोगों के साथ बैठना, बातें करना, काम करना, अपने अपने अनुभव बताना। अब ये दैनिक दिनचर्या में शामिल होकर एक आम बात हो गई है। अगर हम भले हैं ना, तो सामने वाले भी भले ही लगते, और इन भले लोगों से बातें करने में अपना समय कब गुजार देते हैं पता ही नही चलता.... इनमें से कई तो अच्छे द

अब तो झूठ मत बोलो 😴

ये हमारे विशिष्ट मध्यमवर्गीय घरवाले 😐 पता नहीं क्यूं तो ऐसा सोचते है कि हम बहुत जरूरी काम कर रहे है, हमें किसी भी काम के लिए परेशान करना ठीक नहीं, क्यों न कितनी ही परेशानी उन पर आ जाएं.. हमें परेशान नहीं करना है, न ही बताना है 🤐 और इसी कारण हम इस परेशानी में रहते है कि उन पर कोई परेशानी आ भी जायेगी तो न वो हमें बताएंगे, और न ही हम उनकी मदद कर पाएंगे, हमेशा सोचते रहते कि शायद उन्हें कोई परेशानी हो रही हो तो भी वो हमसे झूठ बोल रहे है कि सब चंगा है 🙂 अब इन्हें कौन समझाए कि हमारे लिए तो सबसे ज्यादा खास आप हो.. आपके लिए ही तो सब कर रहे हम भी.. ये काम धाम सब आपके लिए ही है.. आपके और हमारे अच्छे के लिए.. हम साथ रहें, हम खुश रहें, हम सुखी रहे बस, यही सबसे ज्यादा जरूरी है, विश्वास करें... कि अब हम भी समझदार हो गए है 🤗😊 --घर से दूर रहने वाले लोगों की व्यथा 🤓

मेरे पापा कहा करते थेे !

अक्सर लोग किसी उद्भोद्न में बड़ी ही ज्ञानवर्धक बात इस तरह कहते है कि "कि मेरे पापा कहा करते थे, मेरी मां कहती थी, मेरी दादी कहती थी आदि आदि" और इसके बाद एक मस्त सी ज्ञानवर्धक बात होती थी। और मैं सोचता यार पता नहीं क्यूं मेरे परिवार वालों ने तो कभी ऐसी ज्ञानवर्धक बात बोली ही नहीं जिससे मैं कुछ सीख सकूं, और कभी मेरे पास जो कुछ भी है उसका श्रेय उन्हें दे सकूं। लेकिन सच ये है कि हमारे परिवार ने हमें शब्दों से ज्यादा आदतों से सिखाया है, कि कैसे उन्होंने हमारे लिए कितनी सारी चीज़े की है, कैसे वे रहे है और कैसे उन्होंने हमें बड़ा किया है, दरअसल उनकी हर छोटी से बड़ी चीज़ में एक सीख होती थी।  हां हमारे पापा,दादा,मम्मी,दादी और परिवार के कोई सदस्य हम से कुछ ज्ञानवर्धक बात नहीं कहा करता था, लेकिन अपनी आदतों से ही वे बहुत कुछ सीखा दिया करते थे हमें 😊 Action speaks louder than words.

मोबाइल रेडियेशन क्या सच में खतरनाक होता है?

Image
टेलीकम्युनिकेशन में माइक्रोवेव का उपयोग होता है जो कि बहुत कम फ्रीक्वेंसी का रेडिएशन है। और रेडिएशन शब्द से डरो नहीं, जिस प्रकाश में हम देख पा रहे वो भी रेडिएशन ही है। जिसकी जितनी ज्यादा फ्रीक्वेंसी उसकी किसी वस्तु के आर पार जाने की उतनी ही ज्यादा काबिलियत। जैसे गामा रे.. आर पार चली जाती बड़ी दीवारों के.. X-रे हमारे शरीर के आर पार जा सकती, लेकिन हड्डियों के नहीं(मेडिकल फील्ड में कम फ्रीक्वेंसी की X-रे उपयोग होती.. थोडी ज्यादा की हो तो वो हड्डी के आर पार भी हो जाएं). अब ये जो स्पेक्ट्रम है इसमें क्रम से देखो X-रे के बाद अल्ट्रावायलेट आती है.. जो स्कीन को नुकसान पहुंचाती जिससे स्किन कैंसर जैसी बीमारी भी हो सकती। फिर अपना प्रकाश जिससे हम देख पाते। इसके बाद इंफ्रारेड जो किसी ऊष्मा(Heat) को विकिरण द्वारा ट्रांसमिट करता है.. और इसी के कारण सूरज की गर्मी हम तक आ पाती और तब जाकर माइक्रोवेव का नंबर आता जो कि कहीं से कहीं तक शरीर को भेदकर नुकसान पहुंचाने की क्षमता नहीं रखती.. इसकी वेवलेंथ ज्यादा होती तो ये छोटे से छोटे छेद में से भी निकल सकती और कितने ही टेढ़े मेढे रस्ते हो.. आसानी से टकराकर मुड