मेरी रेलयात्रा

ये ठंड का मौसम है। रेलयात्रा का भी अपना एक अलग ही आनंद होता है। रात का सफ़र भले ही कष्टदायक हो पर प्रभा से संध्या के बीच का सफ़र के क्या कहने, न ज्यादा गर्मी लगती न ही ठंड। रेलगाड़ी कहीं ज्यादा देर तक रुकती तो कहीं बस कुछ पलों में रवाना हो जाती। लेकिन जब ज्यादा देर तक रुकती तो कुछ मुसाफ़िर बाहर निकल आते।
कंकरीट के प्लेटफ़ॉर्म पर जूता बजाकर टहलने लगते, जेब में हाथ रख जंघे की ऊष्मा सेंकते।
जनवरी की धूप का स्पर्श उन्हें तंद्रिल कर देता है, उन्हीं में से कुछ एक बीड़ी फूंकने लगते तो कुछ पानी की बोतल भरने के लिए जल्दबाजी दिखाते। कुछ दिन दुनिया से अलग अपने ही में व्यस्त होते तो कुछ अनजान लोग जिनकी कुछ घंटो पहले ही मित्रता हुई है, वो अपने अपने स्तर पर राजनीति, क्रिकेट जैसे बिंदुओं पर विमर्श करते। कुछ छोटे बच्चे अपने पापा को बाहर देख चंचलित होते, और दूर से ही पप्पा–पप्पा कह उन्हें बुलाते, और उनके पप्पा भी उनके तरफ़ एक हल्की सी मुस्कान के साथ उनकी तरफ़ देखते और फ़िर से बातों में व्यस्त हो जाते जैसे कि वो बहुत ही महत्वपूर्ण चर्चा में व्यस्त हो।
और लोग भी उनसे पूछते ’आपकी बच्ची है भाईसाहब’, और फिर थोड़ी जानकारी लेने के बाद वो अभी से कुछ भविष्य की योजना के लिए अपनी–अपनी राय पेल देते हैं और उनको एक नया मुद्दा मिल जाता है बातचीत के लिए। 
बहरहाल सभी के चेहरे पर किसी तरह के शिकवे की कोई शिकन तक ना दिखती। सभी असीम आस्था के साथ सीटी बजने की बाट जोहते रहते। और सीटी बजते ही बड़ी तत्परता के साथ सभी अपने डब्बे में  हथेलियां रगड़ते हुए चले आते।

वहीं कुछ विक्रेता ट्रेन में अपना सामान इतने आकर्षक अंदाज़ में बेचते कि उनमें से हर किसी का मन खरीदने को उलच उठता। कुछ मुसाफ़िर अपने जेब पर हाथ रखते है और थोड़ा सोचते है कि खरीदना है या नहीं, पर दिल और दिमाग की लड़ाई में फंस जाते, फिर विक्रेता के एक और बार उद्घोषण पर उनका दिल विजयी होता है और फिर अपने मन को रोक नहीं पाते और पूछते "ओ भैया कैसे दिये ये संतरे" फ़िर थोड़े मोलभाव के साथ वो ख़रीद लेते हैं। इसके बाद उनकी दिलेरी भी देखने मिलती है जब वो अपने सहयात्री को संतरे की कुछ फांक खाने का प्रस्ताव देते हैं, सहयात्री भी १–२ बार मना करते, फिर ले लेते है। वैसे ही जैसे हम बचपन में रिश्तेदारों के दिए पैसों को मना करते थे जबकि अंदर से पूरा मन होता था लेकिन मम्मी ने बता रखी थी पैसे दे तो तुरंत ना लेना।

बस यही है जीवन। लोगों के कहने के लिए तो ये एकदम ही नीरस है, क्योंकि वे अपने आसपास देखते ही नहीं। हर छोटी छोटी घटना को देखने की एक नज़र चाहिए होती है, उनका अपना एक अलग ही मज़ा होता है। अगर तुम इन छोटे–छोटे पलों को किसी बड़ी मज़ेदार घटना की बाट जोहते हुए गवां रहे हो तो निसंदेह तुम्हारी जिंदगी नीरस ही होगी।

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