कैसे कैसे ऐसे वैसे हो गए? ऐसे वैसे कैसे कैसे हो गए?

दुनिया में सिर्फ़ उन्हीं को सुना जा रहा है जो या तो बहुत ही ज्यादा दक्षिणपंथी होते है या वामपंथी।
लोगों को लगता है कि इन दो विचारधाराओं के अलावा कोई विचारधारा ही नहीं है। इसीलिए ही तो जो सरकार विरोधी सही बात करे उसे वामपंथी और जो सरकार समर्थित सही बात करे उसे दक्षिणपंथी घोषित कर दिया जाता है, और ठीक इसका उल्टा भी, अंग्रेजी में बोले तो वाइस–वर्सा। और मैं शतप्रतिशत ये दावे के साथ कह सकता हूं कि किसी को भी वाम या दक्षिण पंथी घोषित करने वाले और कहलाने वाले दोनों को इनका मतलब नहीं पता। क्योंकि अगर पता होता तो ये भी पता होता कि ये विचारधाराएं तो कब की मर चुकी है, आज बस इनके नाम और संस्थाएं बची है, जो इनसे अपने मतलब ख़ूब निकाल रही।

 चलों होंगे भी अगर ये दोनों वर्ग और विचारधारा, पर अगर इन दोनों से नफ़रत है सबको तो उन लोगों की बातें कोई क्यों नहीं सुनता जो नैतिक रूप से एकदम सही बात करे और इनके बीच की बात करें;
पर ऐसा कैसे हम तोतों ने तो दो ही नाम सुने है इसीलिए ऐसा तो कोई वर्ग है ही नहीं जो नैतिकता से परिपूर्ण संविधान के दायरे में सही बात करें। क्योंकि संविधान बनाने वाले तो एलियन थे ना।

जब–जब भी किसी चीज़ की अधिकता हुई है तब तब उसके भाव गिरे है, क्योंकि हम तो जब से थोड़ा भी समझने लायक हुए तब से कुछ चीज़े देखते आ रहे है, चाहें वो अच्छी हो या बुरी, बस देखते आ रहे। बहुत अधिकता हो गई है इनकी अपनी लाइफ में, इसीलिए अब इन बातों के भाव जिंदगी के बाज़ार में बहुत कम है।

अच्छी बातें तो कृष्ण से लेकर बुद्ध तक और कबीर से लेकर गांधी तक सब ने कही है , और आज तुम उन्हीं को दोहरा रहे!
इसमें नया क्या है रे भाई?

और रही बात बुरी बातों की तो 
ये तो अब पुरानी हो चुकी है,
ठीक उसी तरह जैसे अखबारों का रोज़ हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती आदि घटनाओं से भरा होना,
उसी तरह जैसे विपक्ष का सरकार के हर मुद्दे का विरोध करना चाहे वो जनता हितैषी ही क्यों न हो।
ठीक उसी तरह जैसे छोटे बच्चों का सार्वजनिक स्थलों में भीख मांगना,
ठीक उसी तरह जैसे अस्पताल में अव्यवस्थाओं का आलम होना,
ठीक उसी तरह जैसे ट्रेनों का लेट होना,
ठीक उसी तरह जैसे शिक्षा की गुणवत्ता का कम होना, और स्कूल स्तरीय शिक्षा के लिए भी प्राइवेट ट्यूशन का जरूरी होना,
ठीक उसी तरह जैसे दफ्तरों में रिश्वतखोरी का आम होना,
ठीक उसी तरह जैसे हर शहर में कचरों के बड़े बड़े पहाड़ दिखना।

इनसे हमें फ़र्क नहीं पड़ने वाला , क्योंकि फ़र्क तो हमें तब पड़ता है जब कुछ नया होता है ये सब तो रोज़ की बातें है, इनसे क्या फ़र्क पड़ेगा?

फ़र्क नहीं पड़ने वाला रे बाबा, क्योंकि अब या तो हम मर चुके है या फिर होमोसेपियन से सेपियन शब्द हटाने का समय आ गया है।





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