गोरखालैंड समस्या और समाधान विश्लेषण


दार्जिलिंग में जो तनाव उत्पन्न हुए हैं, इसका असली कारण वहां का असंतुलित विकास और गोरखा समुदाय की पिछले कुछ सालों में की गई अनदेखी है, जिसका फायदा वहां के स्थानीय नेता अपने राजनीतिक लाभ के लिए कर रहे है। प. बंगाल सरकार के बंगाली भाषा को अनिवार्य बनाने के निर्णय ने तो सिर्फ आग में घी डालने का काम किया है।

गोरखालैंड अलग राज्य की मांग 100 से भी ज्यादा साल पुरानी है। 1986 में आग एकदम से भड़क उठी थी , जिसमें 1200 से भी ज्यादा लोगों को आहुति देनी पड़ी थी। अब फिर कुछ उसी तरह के नज़ारे दिख रहे, पर यदि वही गलती फिर से हो तो क्या मतलब लोकतंत्र का...

पड़ोस में चीन का होना समस्या को और भी ज्यादा गंभीर बना रहा, मतलब ये देश की सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा भी है।

तो अब बात करते हैं समस्या के समाधान पर। रास्ते सिर्फ दो है, पहला की इंतजार करो, बातचीत करते रहो, क़िस्मत ने साथ दिया तो, आंदोलनकारी फिर से शांत हो जाएंगे; लेकिन एक गलती दोबारा हो इसकी संभावना कम ही होती है।
दूसरा कि अलग राज्य की मांग स्वीकार कर ली जाए। इससे परिणाम ये होगा कि वहां GJM संगठन मजबूत हो जाएगा और हो सकता है कि वहां सरकार भी उसकी ही बने, वैसे इस आंदोलन का मकसद भी वही है, क्योंकि आंदोलन तो बहाना है, मकसद सत्ता पाना है।  अब अगर थोड़ी कुटनीति की बात करूं तो गोरखा जनमुक्ति मोर्चा संगठन, जो अलग गोरखालैंड राज्य के लिए बना है, को उद्देश्य प्राप्ति के बाद विघटित करने का प्रावधान समझौते में रखा जाए। अगर GJM मान गया तो ठीक है, नहीं माना तो इस संगठन के नेताओं का लालच गोरखा लोगों के सामने आ जाएगा।
                                                                           गौरव

Comments

  1. हमें वहां के निवासियों को विश्वास दिलाना होगा कि उनकी संस्कति को ख़तरा नहीं है 👍

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